Tattvartha Sutra (with commentary)
by Vijay K. Jain | 2018 | 130,587 words | ISBN-10: 8193272625 | ISBN-13: 9788193272626
This is Divine Blessings of the English translation of the Tattvartha Sutra which represents the essentials of Jainism and Jain dharma and deals with the basics on Karma, Cosmology, Ethics, Celestial beings and Liberation. The Tattvarthasutra is authorative among both Digambara and Shvetambara.
Divine Blessings
मंगल आशीर्वाद -
परम पूज्य सिद्धान्तचक्रवर्ती
श्वेतपिच्छाचार्य १०८ श्री विद्यानन्द जी मनिराज
maṃgala āśīrvāda -
parama pūjya siddhāntacakravartī
śvetapicchācārya 108 śrī vidyānanda jī manirāja
‘अज्झयणमेव झाणं’
(अध्ययन ही ध्यान है)
‘ajjhayaṇameva jhāṇaṃ’
(adhyayana hī dhyāna hai)
अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् ।
निर्दोषं हंतुमत् तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः |॥
alpākṣaramasaṃdigdhaṃ sāravad gūḍhanirṇayam |
nirdoṣaṃ haṃtumat tathyaṃ sūtramityucyate budhaiḥ ||
—‘pañcasaṃgraha’, gāthā 4/3, pṛṣṭha
अर्थ - गणधरों ने सूत्र उसे कहा है जो अल्पाक्षर हो, असंदिग्ध हो, सारवद् हो, गूढनिर्णय हो, निर्दोष हो, हेतुमत् हो और तथ्यपूर्ण हो।
सूत्र का यह लक्षण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और आचार्य उमास्वामी प्रणीत 'तत्त्वार्थसूत्र' पर पूरी तरह खरा उतरता है।
सूत्र के उक्त 7 विशेषणों को भी हमें गंभीरतापूर्वक समझना चाहिये। टीकाकार आचार्यों ने इनका बहूत विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। जैसे कि 'निर्दोष' विशेषण में समझाया है कि सूत्र बत्तीस दोषों से रहित होना चाहिए और फिर उन बत्तीस दोषों को पृथक्-पृथक् सोदाहरण स्पष्ट भी किया है, जिसे यहाँ हम विस्तारभय से नहीं लिखते हैं, परन्तु हमें उन सबको भलीभाँति समझना चाहिए, तभी 'तत्त्वार्थसूत्र' का मर्मोद्घाटन होगा।
'तत्त्वार्थसूत्र' की महिमा वचन-अगोचर है। लोग कहते हैं कि उसमें 'गागर में सागर' भरा है, पर मैं कहता हूँ कि उसमें तो 'सरसों के दाने में सागर' समाया है।
'तत्त्वार्थसूत्र' इतना महान् और प्रामाणिक शास्त्र है कि प्राचीनकाल में तो 'शास्त्र' का अर्थ ही 'मोक्षशास्त्र' लगाया जाता था। इसी के आधार पर अनेकानेक शास्त्रों की रचना हुई है। 'अज्झयणमेव झाणं' को चरितार्थ करता हुआ, कोई भी व्यक्ति एक इसी ग्रन्थ के अध्ययन से सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को सरलता से प्राप्त कर सकता है। 'तत्त्वार्थसूत्र' की विषयवस्तु भी अद्भुत है, इसमें प्रयोजनभूत तत्त्वों का सर्व विषय आ गया है। यथा -
पढमचउक्के पढम, पंचमए जाण पोग्गलं तच्चं ।
छट्ठ-सत्तम आसव, अट्ठमए बंध णादव्वो ॥
णवमे संवर-णिज्जर, दहमे मोक्खं वियाणाहि ।
इह सत्ततच्च भणिदं, जिणवरपणीदं दहसत्तं ॥
paḍhamacaukke paḍhama, paṃcamae jāṇa poggalaṃ taccaṃ |
chaṭṭha-sattama āsava, aṭṭhamae baṃdha ṇādavvo ||
ṇavame saṃvara-ṇijjara, dahame mokkhaṃ viyāṇāhi |
iha sattatacca bhaṇidaṃ, jiṇavarapaṇīdaṃ dahasattaṃ ||
अर्थ - प्रथम के चार अध्यायों में प्रथम अर्थात् जीव-तत्त्व का वर्णन है, पाँचवें अध्याय में अजीव-तत्त्व का वर्णन है, छठे-सातवें अध्यायों में आस्रव-तत्त्व का वर्णन है, आठवें अध्याय में बंध-तत्त्व का वर्णन है, नौवें अध्याय में संवर-तत्त्व तथा निर्जरा-तत्त्व का वर्णन है और दसवें अध्याय में मोक्ष-तत्त्व का वर्णन है। इस प्रकार दस अध्यायों में सूत्रों द्वारा जिनवर-प्रणीत सात प्रयोजनभूत तत्त्व कहे हैं।
धर्मानुरागी श्री विजय कुमार जी जैन, देहरादून, ने 'तत्त्वार्थसूत्र' की अंग्रेजी व्याख्या प्रकाशित करा कर विश्व भर के लोगों का महान् उपकार किया है। उन्हें मेरा बहुत-बहुत मंगल आशीर्वाद है।
आचार्य विद्यानन्द मुनि
अक्टूबर २०१८
कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली